द्वन्द्व समास
यहाँ पर हम समास के पञ्चम् भेद द्वन्द्व समास का विस्तृत वर्णन करेंगे ।
लक्षण - प्रायेणोभयपदार्थ-प्रधानो द्वन्द्वः पञ्चमः ।
जिस समास में प्रायः दोनों पदों का अर्थ प्रधान न हो , वह पाँचवा द्वन्द्व समास है ।
( द्वन्द्वसमासविधिसूत्रम् )
चाऽर्थे द्वन्द्वः २ । २ । २९ ॥
अनेकं सुबन्तं चाऽर्थे वर्तमानं वा समस्यतेः , स द्वन्द्वः ।
अर्थात् ‘च’ के अर्थ में वर्तमान अनेक सुबन्तों का समास होता है और उसकी द्वन्द्व संज्ञा होती है ।
समुच्चयाऽन्वाचयेतरेतयोग- समाहाराः चाऽर्थोः । तत्र ‘ईश्वरं गुरू च भजस्व’ इति परस्पर-निपेक्षस्याऽनेकस्यैकस्मिन् अन्वयः-समुच्चयः ।
अर्थात् परस्पर-निरपेक्ष अनेक पदार्थों के एक पदार्थ में अन्वय को समुच्चय कहते हैं ।
जैसे - ईश्वरं गुरूं च भजस्व - ईश्वर और गुरू की सेवा करो ।
‘भिक्षाम्अट गां चाऽऽनय इति अन्यतरस्याऽऽनुषङ्गिकत्वेनाऽन्वयः-अन्वाचयः ।
अर्थात् जब समुच्चीयमान-जिनका समुचय हो रहा हो , पदार्थों में एक का आनुषङ्गिकतया - गौणरूप से - अन्वय हो , तब उसे अन्वाचय कहते हैं ।
जैसे - भिक्षाम् अट गां चाऽऽनय - भिक्षा के लिये जाओ और गाय भी लाओ । यहाँ प्रधानकार्य भिक्षा मांगना है , भिक्षा के लिये घूमते यदि गाय मिल जाये तो उसे भी लेते आना , इस प्रकार गाय गौण कार्य है, आनुषङ्गिक है । इन पदार्थों में गाय का लाना गौण होने से चकार का अर्थ अन्वाचय है ।
अनयोरसामर्थात् समासो न ।
अर्थात् समुच्चय और अन्वाचय -इन दों अर्थों में सामर्थ्य न होने के कारण समास नहीं होता ।
‘धव-खदिरौ छिन्धि’ इति मिलितानाम् अन्वयः- इतरेतरयोगः ।
अर्थात् जब पदार्थ मिलकर आगे अन्वित होते हैं तब उसे इतरेतर-योग कहते हैं ।
जैसे - धवखदिरौ छिन्धि- धव और खैर को काटो । यहाँ धव और खदिर पदार्थ परस्पर मिलकर आगे छेदन क्रिया में अन्वित होते हैं ।इसलिए यहाँ इतरेतरयोग है ।
संज्ञा-परिभाषम् ( इति ) समूहः-समाहारः ।
अर्थात् समूह को समाहार कहते हैं ।इसमें पदार्थों का अन्य पदार्थ के साथ पृथक-पृथक अन्वय नहीं होता ।
जैसे - संज्ञा-परिभाषम्- संज्ञा च परिभाषा च-संज्ञा और परिभाषा का समूह ।
राजदन्ताऽऽदिषु् परम् २ । २ । ३१ ॥
एषु पूर्व-प्रयोगऽर्ह परं स्यात् । दन्तानां राजा - राज-दन्तः ।
( वा ) धर्मां ऽऽदिष्वनियमः । अर्थ-धर्मौ, धर्माऽर्थौ इत्यादि ।
अर्थात् ‘राज-दन्त’ आदि शब्दों में जिस पद का पूर्व प्रयोग प्राप्त हो , उसे आगे रखा जाय ।
उदाहरण-
राजः- दन्तः - दन्तानां राजा
( वा ) धर्म, अर्थ आदि शब्दों में किसको पहले रखा जाय-इसका कोई नियम नहीं अर्थात् इच्छानुसार किसी को भी पहले रखा जा सकता है ।
अर्थ-धर्मौ , धर्मा ऽऽर्थौ - अर्थश्च धर्मश्च ।
द्वन्द्वे घि २ । २ । ३२ ॥
द्वन्द्वे घि-संज्ञं पूर्वं स्यात् । हरिश्च हरश्च - हरि-हरौ ।
अर्थात् द्वन्द्व में घिसंज्ञक पद का पहले प्रयोग हो ।
उदाहरण -
हरि-हरौ - हरिश्च हरश्च
अजाऽऽद्यदन्तम् २ । २ । ३३ ॥
इदं द्वन्द्वे पूर्वं स्यात् । ईश-कृष्णौ ।
अर्थात् अजादि और अदन्त पद का द्वन्द्व में पहले प्रयोग हो ।
उदाहरण -
ईश-कृष्णौ - ईशश्च कृष्णश्च ।
अल्पाऽच्- तरम् २ । २ । ३४ ॥
शिव-केशवौ ।
अर्थात् जिस पद में अन्य पदों की अपेक्षा थोड़े अच् हों, द्वन्द्व में उसका पहले प्रयोग हो ।
उदाहरण -
शिव-केशवौ - शिवश्च केश्वश्च ।
पिता मात्रा १ । २ । ७० ॥
मात्रा सहोक्तौ पिता वा शिष्यते । माता च पिता च - पितरौ , माता-पितरौ वा ।
अर्थात् माता के साथ कथन होने पर पिता पद विकल्प से शेष रहता है ।
उदाहरण -
पितरौ - माता च पिता च
द्वन्द्वश्च प्राणि-तूर्य-सेनाऽङ्गानाम् २ । ४ । २ ॥
एषां द्वन्द्व एक-वत् । पाणि-पादम् । मार्दङ्गिकवैणविकम् । रथिकाऽश्वारोहम् ।
अर्थात् प्राणी, तूर्य और सेना इनके अङ्गोंके वाचक शब्दो का द्वन्द्व एकवचनान्त हो ।
उदाहरण -
पाणि-पादम् - पाणी च पादौ च
मार्दङ्गिक -वैणविकम् - मार्दङ्गिक श्च वैणविक श्च ।
द्वन्द्वात् चु-द-ष-हाऽन्तात् समाहारे ५ । ४ । १०६ ॥
चर्वगान्ताद् द-ष-हाऽन्ताच्च द्वन्द्वात् टच् स्यात् समाहारे । वाक् च त्वक् च वाक्-त्वचम् । त्वक्-स्त्रजम् । शमी-दृषदम् । वाक्-त्विषम् । छत्रोपानहम् । समाहारे किम्-प्रावृट्-शरदौ । इति द्वन्द्वः ।
अर्थात् चवर्गान्त, दकारान्त, षकारान्त और हकारान्त द्वन्द्व से समासात् टच् प्रत्यय हो समाहार ही अर्थ में ।
उदाहरण -
वाक्त्वम् - वाक् च त्वक् च तयोः समाहारः
त्वक्स्त्रजम् - त्वक् च स्त्रक् च तयोः समाहारः
शमी -दृष्दम् - शमी च दृषद् च तयोः समाहारः
वाक -त्विषम् - वाक् च त्विट् च
छत्रोपानहम् - छत्रं च उपानत् च
॥ इति द्वन्द्वः ॥
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