केवल समास
यहाँ पर हम समास के पहले भेद केवल समास का विस्तृत वर्णन करेंगे ।
लक्षण - स च विशेषसंज्ञाविनिर्मुक्त: केवलसमास: प्रथम: ।
अर्थात् वह समास जो विशेष नाम से रहित है , वह केवल समास है । यह प्रथम समास है ।
( समासविधिसूत्रम् )
सह सुपा । २ । १ । ४ ॥
सुप् सुपा सह वा समस्यते समासत्वात् प्रातिपदिकत्वेन सुपो लुक् ।
अर्थात् सुबन्त का सुबन्त के साथ समास होता है ।
इस सूत्र में ‘सुब् आमन्त्रिते पराङ्गवत् स्वरे २ । १ । २ ॥’ इस पूर्व सूत्र से ‘सुप्’ इस प्रथमान्त पद की अनुवृत्ति आती है । तृतीयान्त ‘सुपा’ पद है ।प्रत्यय होने के कारण ‘प्रत्ययग्रहणे तदन्त-ग्रहणम्’ इस परिभाषा के बल से तदन्त का ग्रहण होता है ।
समासत्वादिति - समास होने से प्रातिपदिक संज्ञा होगी । इससे ‘सुपो’ धातु-प्रातिपदिकयो: २ । ४ । ७१ ॥’ सूत्र से लोप हुआ ।
परार्था ऽभिधानं वृत्ति: ।
परार्थ के बोधन कराने को वृत्ति कहते हैं ।
प्रत्यय या अन्य पद के अर्थ को साथ लेकर जो विशिष्ट अर्थ प्रतीत होता है, उसे परार्थ कहते हैं । वृत्ति से उसी परार्थ का बोध होता है ।
कृत्-तद्धित-समासैकशेष-सनाऽऽद्यन्तधातु-रूपा: पञ्च वृत्तय: ।
कृत् , तद्धित , समास , एकशेष और सनाद्यन्तु धातु रूप । ये पाँच वृत्तियाँ होती हैं ।
वृत्यर्था ऽववोधकं वाक्यं विग्रह: ।स च लौकिकोऽलौकिकश्चेति द्विघा-तत्र ‘पूर्वं भूत:’ इति लौकिक: । ‘पूर्वं अम् भूत् सु’ इत्लौकिक: ।भूतपूर्व: । ‘भूत-पूर्वं चरड्’ इति निर्देशात् पूर्व-निपात: ।
वृत्ति के अर्थ का बोध कराने वाले वाक्य को विग्रह कहते हैं ।
यह विग्रह २ प्रकार के होते हैं ।
१ लौकिक
२ अलौकिक ।
लौकिक विग्रह उसे कहते हैं , जिसका लोक में प्रयोग किया जाता है ।
जैसे - ‘राजपुरूष:’ का ‘राज्ञ: पुरूष:’ ।
अलौकिक विग्रह उसे कहते हैं , जिसका लोक में प्रयोग नहीं होता है ।इसकी तो व्याकरणशास्त्र की प्रक्रिया के लिये कल्पना की गई है ।
जैसे - ‘राजपुरूष:’ का ‘राजन् ङस् पुरूष सु’ ।
उदाहरण -
भूतपूर्व: । विग्रह - पूर्वं भूत: ।
वागर्थाविव । विग्रह - वागर्थौ इव ।
॥ इति केवलसमासः ॥
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