अव्ययीभाव समास
यहाँ पर हम समास के दूसरे भेद अव्ययीभाव समास का विस्तृत वर्णन करेंगे ।
लक्षण - प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावो: द्वितीय: ।
जिसमें प्राय: पूर्व पद प्रधान हो , अर्थात् पूर्व पद अर्थ प्रधान हो , वह अव्ययीभाव समास कहलाता है ।
( समाससूत्रम् )
अव्ययं विभक्ति-समीप-समृद्धि-व्यृद्ध्यर्था ऽभावाऽत्ययासंप्रति-शब्दप्रादुर्भाव-पश्र्चाद्-यथाऽऽनुपूर्व्य-यौगपद्य-सादृश्य-संपत्ति-साकल्याऽन्त-वचनेषु २ । १ ।६ ॥
विभक्त्यर्थादिषु वर्तमानमव्ययं सुबन्तेन सह नित्यं समस्यते । प्रायेणाऽविग्रहो नित्यसमास: , प्रायेणाऽस्वपदविग्रहो वा ।विभक्तौ -‘हरि ङि अधि’ इति स्थिते ।
अर्थात्
१ विभक्ति
२ समीप
३ समृद्धि
४ समृद्धि का नाश
५ अभाव
६ नाश
७ अनुचित
८ शब्द की अभिव्यक्ति
९ पश्चात्
१० यथा
११ क्रमश:
१२ एक दम
१३ समानता
१४ संपत्ति
१५ सम्पूर्णता
१६ अन्त तक , इन १६ अर्थों में वर्तमान अव्यय का सुबन्त के साथ नित्य समास हो ।
प्रायेणेति - प्राय: जिस समास का विग्रह न हो उसे नित्यसमास कहते हैं अथवा प्राय: जिसका अपने पदों से विग्रह नहीं होता अर्थात् जिन शब्दों का समासहुआ हो उन शब्दों के द्वारा जिसका विग्रह न हो , वह नित्यसमास होता है ।
यहाँ पर विग्रह से तात्पर्य लौकिक विग्रह का है । अलौकिक विग्रह तो सभी समासों का होता है ।लौकिक विग्रह में समास के सभी अवयव आयें तब भीनित्यसमास होता है ।
यदि समास का कोई अवयव विग्रह में आ जाये तब भी नित्यसमास होता है । जैसे - ‘अधिहरि’ यह समस्त पद है । ‘अव्ययं विभक्ति’ सूत्र से यहाँ विभक्तिमें समास हुआ है ।यह नित्य समास है ।इसका लौकिक विग्रह है- हरौ । यहाँ समास का अवयव ‘हरि’ शब्द विग्रह में आ गया है , पर अधि शब्द नहीं आया , इसलिये समास के अवयव सभी पदों के विग्रह में न आने के कारण यह नित्य समास है ।
समास होने पर प्रश्न यह उठता है ,कि किस शब्द को पहले रखा जाये । इस प्रश्न का समाधान करने के लिए अग्रिम सूत्र है ।
( ‘उपसर्जन’ संज्ञासूत्रम् )
प्रथमा - निर्दिष्टं समास उपसर्जनम् १ । २ । ४३ ॥
समास-शास्त्रे प्रथमा- निर्दिष्टम् उपसर्जनसंज्ञं स्यात् ।
प्रथमेति - समास शास्त्र में अर्थात् समास करनेवाले सूत्र में जो पद प्रथमान्त पड़ा हो , उस के द्वारा विग्रह वाक्य में स्थित जिस पद का बोध हो वह उपसर्जन - संज्ञक हो ।
जैसे प्रकृत में समासशास्त्र है पूर्वोक्त ‘अव्ययं विभक्ति’ इत्यादि सूत्र , इसमें ‘अव्ययम्’ पद प्रथमान्त आया है । इसके द्वारा ‘हरि ङि अधि’ इस अलौकिक विग्रहवाक्य में स्थित ‘अधि’ पद का ज्ञान है, अत: इसकी उपसर्जन संज्ञा हुई ।
( ‘पूर्व निपात’ नियमसूत्रम् )
उपसर्जनं पूर्वम् २ । २ । ३० ॥
समासे उपसर्जनं प्राक् प्रयोज्यम् ।इति ‘अधे:’ प्राक् प्रयोग:, सुपो लुक्, एकदेश-विकृतस्याऽनन्यत्वात् प्रातिपदिक-संज्ञायां स्वाद्युत्पत्ति:, अव्ययीभावश्च’ इत्यव्ययत्वात् सुपो लुक-अधिहरि ।
उपसर्जनमिति - समास में उपसर्जन का पहले प्रयोग हो ।
इस सूत्र के द्वारा उपर्युक्त उदाहरण में उपसर्जन संज्ञक ‘अधि’ पद का पूर्व निपात अर्थात् पहले प्रयोग हुआ ।
( नपुंसकत्वविधिसूत्रम् )
अव्ययीभावश्च २ । ४ । १८ ॥
अयं नपुंसक स्यात् । गा: पातीति गोपास्तस्मिन्निति-अधिगोपम् ।
अव्ययीभाव समास नपुंसकलिंग होता है ।
अधिगोपम् ( ग्वाले में ) - ‘गोपि’ इस लौकिक विग्रह और ‘गोपा ङि अधि’ इस अलौकिक विग्रह में ‘अव्ययं विभक्ति’ इत्यादि सूत्र से विभक्ति सप्तमी के अर्थ में वर्तमान अधि-अव्यय का सुबन्त ‘गोपि’ के साथ समास हुआ ।
समासशास्त्र में आये हुए ‘अव्ययम्’ प्रथमान्त पद के द्वारा बोध्य होने से ‘अधि’ को ‘९१२ प्रथमा-निर्दिष्टं समास उपसर्जनम् १ । २ । ४३ ॥’ इस सूत्र के द्वारा उपसर्जन संज्ञा होने के कारण पूर्व प्रयोग हुआ । फिर प्रातिपदिक संज्ञा होने पर सुप् ङि का लोप होकर ‘अधिगोपा’ शब्द बना । अव्ययीभाव होने से प्रकृत सूत्र से यह नपुंसकलिंग हुआ । तब ‘ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य’ से ह्रस्व होने पर ‘अधिगोप’ शब्द बना और प्रथमा के एकवचन में रूप सिद्ध हुआ ।
( सुब्लुक् निषेध-अमादेशविधिसूत्रम् )
नाऽव्यीभावाद् अतोऽम् त्वपञ्चम्या: ३ । ४ । ८३ ॥
अदन्ताद्अव्ययीभावा त्सुपो न लुक् तस्य पञ्चमी विना ‘अम्’ आदेश: स्यात् ।
अदन्त अव्ययीभाव से पर सुप् का लोप न हो, उसके स्थान में अम् आदेश हो , पञ्चमी विभक्ति को छोड़कर ।
( ‘अम्’ आदेशविधिसूत्रम् )
तृतीया-सप्तम्योर्बहुलम् २ । ४ । ८४ ॥
अदन्ताद् अव्ययीभावत् तृतीया-सप्तम्योर्बहुलम् ‘अम्’ भावः स्यात् ।
अदन्त अव्ययीभाव से पर तृतीया और सप्तमी को बहुलता से ‘अम्’ होता है ।
उदाहरण -
उप-कृष्णम् , उप-कृष्णेन ।
मद्राणां समृद्धिः , सु-मद्रम् ।
यवनानां व्यृद्धिः-दुर्यवनम् ।
मक्षिकाणाम् अभावः- निर्मक्षिकम् ।
हिमस्याऽत्ययःअति-हिमम् ।
निद्रा संप्रति न युज्यत इति-अति-निद्रम् ।
हरिशब्दस्य प्रकाशः -इति-हरि ।
विष्णोः पश्चाद्-अनुविष्णु ।
योग्यता-वीप्सा-पदार्था ऽनतिवृत्ति-सादृश्यानि यथार्थाः - रूपस्य योग्यमनुरूपम् , अर्थमर्थ प्रति - प्रत्यर्थम् , शक्तिमनतिक्रम्य-यथाशक्ति ।
( ‘स’ आदेशविधिसूत्रम् )
अव्ययीभावे चाऽकाले ६ । ३ । ८१ ॥
सहस्य सः स्याद् अव्ययीभावे , न तु काले ।
सह को ‘स’ आदेश हो अव्ययीभाव समास में, परन्तु काल अर्थ में न हो ।
हरेः सादृश्यम् - सहरि ।
ज्योष्ठस्याऽऽ-नुपूर्व्येण-इति-अनुज्येष्ठम् ।
चक्रेण युगपत्-सचक्रम् ।
सदृशः संख्या - स-सखि ।
क्षत्त्राणां संपत्तिः - स-क्षत्त्रम् ।
तृणमप्यपरित्यज्य - स-तृणम् अत्ति ।
अग्निग्रन्थपर्यन्तम् अधीते - साऽग्नि ।
( ‘संख्या’ समासविधिसूत्रम् )
नदीभिश्च २ । १ । २० ॥
नदीभिः सह संख्या समस्यते ।
नदी-विशेष के वाचक के साथ संख्यावाचक का समास होता है ।
( समाहारसमासविधिवार्तिकम् )
( वा ) समाहारे चाऽयमिष्यते । पञ्च-गङ्गम् । द्विवमुनम् ।
यह समाहार में होता है । अर्थात् समस्त पद का अर्थ समाहार होता है ।
( समासान्त-टच्-प्रत्ययविधिसूत्रम् )
अव्ययीभावे शरत् प्रभृतिभ्यः ५ । ४ । १०७॥
शरदादिभ्यष्टच् स्यात् समासान्तोऽव्ययीभावो । शरदः समीपम्-उपशरदम् । प्रतिविपाशम् ।
शरद् आदि शब्दों से टच् प्रत्यय समासान्त हो अव्ययीभाव में ।
( ‘जरम्’ आदेशविधिसूत्रम् )
( ग० सू० ) जराया जरस् । उपजरसमित्यादि ।
समास में जरा शब्द का जरस् आदेश और समासान्त टच् प्रत्यय हो ।
यह शरदादि गण का सूत्र है । इसके द्वारा टच् समासान्त के साथ जरा शब्द के स्थान में जरस् आदेश का भी विधान किया गया है ।
( समासान्त -टच्-प्रत्ययविधिसूत्रम् )
अनश्च ५ । ४ । १०८ ॥
अन्नन्ताद् अव्ययीभावात् टच् स्यात् ।
अन्नन्त अव्ययीभाव से समासान्त टच् प्रत्यय हो ।
( नकारान्तटिलोपसूत्रम् )
नस्तद्धिते ६ । ४ । १४४ ॥
नाऽन्तस्य भस्य टेर्लोपस्तद्धिते । उपराजम् । अध्यात्मम् ।
नान्त भसंज्ञक टि का लोप हो तद्धित प्रत्यय परे रहते ।
( ‘टच्’ प्रत्ययविधिसूत्रम् )
नपुंसकाद् अन्यतरस्याम् ५ । ४ । १०९ ॥
अन्नन्तं यत् क्लीबं तदन्तादव्ययीभावाट्टज्वा स्यात् । उपचर्मम् , उपचर्म ।
अनन्त जो क्लीब , तदन्त अव्ययीभाव से टच् होता है विकल्प से ।
झयः ५ । ४ । १११ ॥
झयन्तादव्ययीभावाट्टच् वा स्यात् । उपसमिधम् , उपसमित् ।
झयन्त अव्ययीभाव से टच् होता है ।
॥ इत्यव्ययीभावः ॥
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