तत्पुरूष समास

यहाँ पर हम समास के तीसरे भेद तत्पुरूष समास का विस्तृत वर्णन करेंगे  


लक्षण  प्रायेणोत्तरपदार्थ-प्रधानस्तत्पुरूषस्तृतीय


जिसमें प्राय उत्तरपद का अर्थ प्रधान हो , वह तत्पुरूष समास कहा जाता है  यह समास का तीसरा भेद है 


तत्पुरूष  समास के भेद - 


तत्पुरूष समास के मु्ख्य रूप से २ भेद किये गये हैं -


१   व्यधिकरण तत्पुरूष समास ;


२  समानाधिकरण तत्पुरूष समास ( कर्मधारय समास / कर्मधारय तत्पुरूष समास ) ;


१  व्यधिकरण तत्पुरूष समास


जिस तत्पुरूष समास में प्रथम पद या पूर्व पद तथा द्वितीय पद या उत्तर पद दोनों भिन्न-भिन्न विभक्तियों में हों , वह व्यधिकरण तत्पुरूष होता है ।

यथा  -  ‘गोसुखम्’ में ‘गोभ्यः’ चतुर्थी और ‘सुखम्’ प्रथमा विभक्ति में है । इस प्रकार दोनों अलग विभक्ति होनो के कारण व्यधिकरण तत्पुरूष समास है । 


व्यधिकरण तत्पुरूष समास के छः भेद हैं -

१ द्वितीया तत्पुरूष


२ तृतीय तत्पुरूष


३ चतुर्थी तत्पुरूष


४ पञ्चमी तत्पुरूष


५ षष्ठी तत्पुरूष


६ सप्तमी तत्पुरूष


१  द्वितीय तत्पुरूष समास


( ‘द्वितीया’ समासविधिसूत्रम् )

द्वितीया-श्रिताऽतीत-पतित-गताऽत्यस्त-प्राप्ताऽऽपन्नैः  २ । १ । २४ ॥


द्वितीयान्तं श्रिताऽऽदि-प्रकृतिकैः सुबन्तैः सह समस्यते वा , स च तत्पुरूषः ।


अर्थात् द्वितीयान्त पद का श्रित , अतीत , पतित , गत , अत्यस्त ( फेंका हुआ )  , प्राप्त और आपन्न , इन प्रातिपदिकों से बने हुए सुबन्तों के साथ विकल्प से समास होता है और उसकी तत्पुरूष संज्ञा होती है ।


उदाहरण - 

                   कृष्णश्रितः   कृष्णं श्रितं 


                   आशाऽतीतः   आशाम् अतीतः


                    संकटाऽऽपन्नः   संकटमापन्नः



३  तृतीय तत्पुरूष समास


( ‘तृतीया’ समासविधिसूत्रम् )

तृतीया तत्कृताऽर्थेन गुण-वचनेन  २ । १ । ३० ॥


तृतीयान्तं तृतीयान्तार्थकृतगुणवचनेनाऽर्थेन च सह वा प्राग्वत् । शङकुलया खण्डः-शङ्कुला-खण्डः । धान्येनार्थः - धान्याऽर्थः ।’तत्कृत’ इति किम्-अक्ष्णां काण: ।


अर्थात् तृतीयान्त का तृतीयान्त के अर्थ से किए हुए गुणवाचक शब्द के साथ तथा अर्थ के साथ समास होता है 


उदाहरण -

                  शङ्कुला-खण्डः   शङ्कुलया खण्डः 


                  धान्यार्थः  - धान्येन अर्थः


कर्तृकरणे कृता बहुलम्  २ । १ । ३२ ॥


कर्तृरि करणे च तृतीया कृदन्तेन बहुलं प्राग्वत् । हरिणा त्रातो हरित्रातः नखैर्भिन्नो नखभिन्नः । 

( प० ) कृद्ग्रहणे गतिकारकपूर्वस्याऽपि ग्रहणम् । नखनिर्भन्नः ।


अर्थात् कर्ता में और करण में तृतीया का कृदन्त के साथ बहुलता से समास होता है ।

( वा० - कृत् के ग्रहण में गति-कारकपूर्वक शब्दों का भी ग्रहण होता है ।


उदाहरण - 

                  हरि-त्रात्   हरिणा त्रातः



३  चतुर्थी तत्पुरूष समास


( ‘चतुर्थी’ समासविधिसूत्रम् )


चतुर्थी तदर्था ऽर्थ-बलि-हित-सुख-रक्षितैः  २ । १ । ३६ ॥


चतुर्थ्यन्तार्थाय यत् , तद्वाचिना अर्थादिभिश्च चतुर्थ्यन्तं वा प्राग्वत् ।यूपाय दारू-यूपदारू । तदर्थेन प्रकृतिविकृतिभाव एवेष्टः , तेनेह न रन्धनाथ स्थाली ।

( वा ) अर्थेन नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम् । द्विजार्थः सूपः । द्विजार्था यवागूः । द्विजार्थं पयः । भूतबलिः । गोहितम् । गोसुखम् । गोरक्षितम् ।


अर्थात् चतुर्थ्यन्तार्थ के लिये जो पदार्थ , तद्वाचक शब्द के साथ और अर्थादियों के साथ चतुर्थ्यन्त का समास होता है विकल्प से ।

( वा० —( १ ) तदर्थ से प्रकृति-विकृतिभाव ही लिया जाता है । ( २ ) अर्थ के साथ नित्य समास होता है और विशेष्यलिङ्गता भी होती है । )


उदाहरण  -

                 यूप-दारू   यूपाय दारू


  

४  पञ्चमी तत्पुरूष समास


( ‘पञ्चमी’ समासविधिसूत्रम् )


पञ्चमी भयेन  २ । १ । ३७ ॥


चोराद् भयम् - चोरभयम् ।


अर्थात् पञ्चम्यन्त का भयवाचक शब्द के साथ समास होता है । 


स्तोकाऽन्तिक-दूरार्थ-कृच्छाणि क्तेन  २ । १ । ३९ ॥


अर्थात् स्तोक ( थोड़ा ) , अन्तिक ( समीप ) और दूर के अर्थ के वाचक और कृच्छ ( कष्ट ) इन सुबन्तों का क्तप्रत्ययान्त सुबन्त के साथ समास होता है । 


पञ्चम्याः स्तोकाऽदिभ्यः  ६ । ३ । २ ॥


अलुग् उत्तरपदे । स्तोकान्मुक्तः । अन्तिकादागतः । अभ्याशादागतः । दूरादागतः । कृच्छादागतः ।


अर्थात् स्तोकादि शब्दों से पर पञ्चमी विभक्ति का लुक् न हो , उत्तरपद परे रहते ।

विभक्ति के लोप के न होने पर समास का फल एक पद बन जाना और एक स्वर होना है ।

स्तोकान्मुक्तः ( थोड़े से मुक्त , अन्तिकादागतः ( पास से आया हुआ ) , अभ्याशादागतः ( पास से आया हुआ ) , दूरादागतः ( दूर से आया हुआ ) , कृच्छादागतः ( कष्ट से आया हुआ )।



५  षष्ठी तत्पुरूष समास 


( ‘षष्ठी’ समासविधिसूत्रम् )


षष्ठी  २ । २ । ८ ॥


सुबन्तेन प्रागवत् । राज-पुरूषः ।


अर्थात् षष्ठयन्त का प्रातिपदिक सुबन्त के साथ समास होता है विकल्प से ।


पूर्वापराधरोत्तरमेकदेशिनैकाऽधिकरणे  । २ । २ । १ ॥


अवयविना सह पूर्वा ऽऽदयः समस्यन्ते एकत्वसंख्याविशिष्टश्चेदवयवी । षष्ठीसमासाऽपवादः । पूर्वं कायस्य पूर्वकायः । अपरकायः । एकाऽधिकरणे किम् पूर्वश्छात्राणाम् ।


अर्थात् पूर्व ( आगे का ) , अपर ( पीछे का ) , अधर ( नीचे का ) और उत्तर ( ऊपर ) इन अवयव-वाचक शब्दों का अवयवीवाचक शब्द के साथ समास होता है । यदि अवयवी एकत्व संख्यायुक्त हो अर्थात् एकवचनान्त हो ।


एकदेश अवयव को कहते हैं और एकदेशी अवयवी को । इसलिये सूत्रस्थ , एकदेशिना पद का अर्थ वृत्ति में ‘अवयविना’ किया गया है । अधिकरण अर्थ को कहते हैं । इसलिए सूत्रस्थ ‘एकाधिऽकरण’ पद का अर्थ वृत्ति में किया गया है , एकत्वसंख्या -विशिष्ट अर्थात् एकत्वसंख्या जब अर्थ हो ।


षष्ठीसमासेति - अवयवी का अवयव पूर्व आदि के साथ इस सूत्र से समास विधान षष्ठीसमास का बाधक है । यदि षष्ठी समास हो को षष्ठयन्त का पूर्व प्रयोग हो जायगा । इस एकदेशिसमास के करने पर समासशास्त्र में प्रथमान्त पद पूर्व आदि अवयव-वाचक शब्द हैं , उनसे बोध्य पद पूर्व आदि हैं उनका पूर्व प्रयोग होता है । पूर्व प्रयोग कि लिये ही यह एकदेशिसमास किया गया है ।


अर्धं नपुंसकम्  २ । २ । २ ॥


समांशवाच्यर्धशब्दो नित्यं क्लीबे स प्राग्वत् । अर्धं पिप्पल्याः , अर्ध-पिप्पली ।


अर्थात् बराबर आधे भाग का वाचक जो नित्य नपुंसक अर्ध-शब्द है , उसका सुबन्त के साथ समास होता है ।



६  सप्तमी तत्पुरूष समास


( ‘सप्तमी’ विभक्तिसमासविधिसूत्रम् )


सप्तमी शौण्डैः  २ । १ । ४० ॥


सप्तम्यन्तं शौण्डाऽऽदिभिः प्राग्वत् । अक्षेषु शौण्डः-अक्षशौण्ड: । इत्यादि द्वितीयातृतीयेत्यादियोगविभागादन्यत्राऽपि तृतीयाऽऽदिविभक्तीनां प्रयोगवशात् समासो ज्ञेयः ।


अर्थात् सप्तम्यन्त शब्द शौण्डादिक प्रकृतिक समर्थ सुबन्त के साथ समस्त होते हैं ।


दिक्संख्ये संज्ञायाम्  २ । १ । ५० ॥


संज्ञायामेवेति नियमार्थं सूत्रम् । पूर्वेषुकामशमी । सप्तर्षयः । तेनेह न-उत्तरा वृक्षाः । पञ्च ब्राह्मणाः ॥


अर्थात् दिग्वाचक और संख्यावाचक शब्दों का केवल संज्ञा में ही तत्पुरूष समास होता है ।


तद्धिताऽर्थोत्तरपद-समाहारे च  २ । १ । ५१ ॥


तद्धितार्थे विषये , उत्तरपदे च परत् , समाहारे च वाच्ये , दिक्-संख्ये प्राग्वत् पूर्वस्यां शालायां भवः पूर्वशाल इति , समासे जाते 

( वा० ) सर्वनाम्नो वृत्ति-मात्रे पुंबद्भावः ।


अर्थात् तद्धितार्थ कि विषय में उत्तरपद परे रहते और समाहार कि वाच्य होने पर दिग्वाचक और संख्यावाचक शब्द समर्थ सुबन्त के साथ समस्त होते हैं ।


दिक्-पूर्वपदाद् अ-संज्ञायां ञः      १०७ 


अस्माद् भवार्थे ञः स्याद् असंज्ञायाम् ।


अर्थात् दिक्पूर्वपद समास से भावार्थ में ञ प्रत्यय होता है असंज्ञा में ।


तद्धितेष्वचामादेः  ७ । २ । ११७ ॥


ञिति णिति च तद्धितेऽचामादेरचो वृद्धिः स्यात् । यस्येति च । पौर्वशालः ।पञ्च गावो धनं यस्येति त्रिपदे बहुव्रीहौ  

( वा ) द्वनद्वतत्पुरूषयोरूत्तरपदे नित्यसमासवचनम् ।


अर्थात् ञित् , णित् तद्धित परे रहते अचों के आदि अच् को वृद्धि होती है ।

( वा० ) उत्तरपद परे रहते द्वन्द्व और तत्पुरूष समास नित्य होता है । 


गोरतद्धितलुकि  ५ । ४ । ९२ ॥


गोऽन्तात् तत्पुरूषात् टच् स्याद् समासाऽन्तो , न तु तद्धितलुकि । पञ्च-गव-धनः ।


अर्थात् गोशब्दान्त तत्पुरूष से समासान्त टच् प्रत्यय होता है , तद्धित के लुक् में नहीं ।




२  समानाधिकरण तत्पुरूष समास ( कर्मधारय समास / कर्मधारय तत्पुरूष समास )


( ‘कर्मधारय’ संज्ञासूत्रम् )


तत्पुरूषः समानाऽधिकरणः कर्मधारयः २ । १ । ४२ ॥


अर्थात् जिसमें दोनों पदों की विभक्ति समान हो , उसे समानाधिकरण तत्पुरूष समास कहते हैं । इसे कर्मधारय समास भी कहा जाता है ।


समानाधिकरण (कर्मधारय) समास के प्रमुख तीन भेद हैं -

१ विशेषण पूर्वपद कर्मधारय समास


२ उपमान पूर्वपद कर्मधारय समास


३ द्विगु समास 


१  विशेषण पूर्वपद कर्मधारय समास


सूत्र - विशेषणं विशेष्येव बहुलम्  २ । १ । ५७ ॥


भेदकं भेद्येन समानाऽधिकरणेन बहुलं प्राग्वत् । नीलम् उत्पलम् - नीलोत्पलम् । बहुलग्रहणात् कचिद् नित्यम्-कृष्ण-सर्प , कचिद् न-रामो जामदग्न्यः ।


समानाधिकरण तत्पुरूष समास में यदि प्रथम पद विशेषण तथा द्वितीय पद विशेष्य होता है तो उसे विशेषण पूर्वपद कर्मधारय कहते हैं ।

अर्थात् भेदक ( विशेषण ) समानाधिकरण भेद्य ( विशेष्य ) के साथ बाहुल्य से समस्त होता है ।



२  उपमान पूर्वपद कर्मधारय समास


सूत्र - उपमानानि सामान्य-वचनैः  २ । १ । ५५ ॥


घन इव श्यामः - घन-श्यामः ।

( वा ) शाक-पार्थिवाऽऽदीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम् । शाक-प्रियः पार्थिवः - शाकपार्थिवः । देव-पूजको ब्राह्मणः - देवब्राह्मणः ।


जब उपमानवाचक शब्दों के साधारण धर्मवाचक शब्दों का समास होता है तो वह उपमान पूर्वपद कर्मधारय समास होता है ।

( वा० ) शाकपार्थिवादि की सिद्धि के लिये उत्तरपद का लोप होता है ।



३ द्विगु समास


सूत्र - संख्या-पूर्वो द्विगुः  २ । १ । ५२ ॥


‘तद्धितार्थ’ - इत्यत्रोक्तः त्रिविधः संख्यापूर्वो द्विगुसंज्ञः स्यात् ।


अर्थात् संख्यापूर्व तत्पुरूष की द्विगु संज्ञा होती है ।


द्विगुरेकवचनम्  २ । ४ । १ ॥


द्विग्वर्थः समाहार एकवत् स्यात् । 


अर्थात् द्विगु समास का अर्थ समाहार एकवचन हो ।


स नपुंसकम्  २ । ४ । १७ ॥


समाहारे द्विगुर्द्वन्द्वश्च नपुंसकं स्यात् । पञ्चानां गवां समाहारः - पञ्चगवम् ।


अर्थात् समाहार में द्विगु और द्वन्द्व नपुंसक होते है ।



तत्पुरूष समास के उपभेद -


उपरोक्त व्यधिकरण व समानाधिकरण के अतिरिक्त तत्पुरूष समास के तीन उपभेद भी हैं -

१  नञ् तत्पुरूष समास 


२  प्रादि तत्पुरूष समास 


३  उपपद तत्पुरूष समास 



१ नञ् तत्पुरूष समास 


सूत्र - नञ्  २ । २ । ६ ॥


नञ् सुपा सह समस्यते ।


अर्थात् जिसका पूर्व पद नञ् ( न ) हो तथा उत्तर पद कोई संज्ञा या विशेषण हो , उसे  ‘नञ् तत्पुरूष समास’ कहा जाता है ।

‘नञ्’ समर्थ सुबन्त के साथ समस्त होता है विकल्प से ।


न-लोपो नञः  ६ । ३ । ७ ॥


नञो नस्य लोप उत्तरपदे । न ब्राह्मणः - अब्राह्मणः ।


अर्थात् नञ् के न का लोप् होता है उत्तरपद परे रहते ।


तस्माद् नुड् अचि  ६ । ३ । ७४ ॥


लुप्त-नकाराद् नञ उत्तरपदस्याजादेः ‘नुट्’ आगमः स्यात् । अनश्वः । ‘नैकधा’ इत्यादौ तु न-शब्देन सह सुप्सुपेति समासः ।


अर्थात् जिस नञ् के नकार का लोप हो गया हो उससे पर अजादि उत्तरपद को नुट् आगम हो ।



२  प्रादि तत्पुरूष समास 


जिस तत्पुरूष समास का प्रथम पद ‘कु’ गति संज्ञक या ‘प्र’ आदि होता है , उसे ‘प्रादि तत्पुरूष समास’ कहते हैं ।


सूत्र - कुगतिप्राऽऽदयः  २ । २ । १८ ॥


एते समर्थेन नित्यं समस्यन्ते । कुत्सितः पुरूषः - कु- पुरूषः ।


अर्थात् कुशब्द गतिसंज्ञक और प्र आदि का समर्थ सुबन्त के साथ नित्य समास होता है ।


ऊर्यादि-च्वि-डाचश्च  १ । ४ । ६१ ॥


ऊर्यादयश्च्व्यन्ता डाजन्ताश्च क्रियायोगे गतिसंज्ञाः स्युः । ऊरीकृत्य । शुक्लीकृत्य । पटपटाकृत्य । सुपुरूषः ।

( वा ) प्राऽऽदयो गताद्यर्थे प्रथमया । प्रगत आचार्यः - प्राऽऽचार्यः ।

( वा ) अत्यादयः क्रान्ताऽऽद्यर्थे द्वितीयया । अतिक्रान्तो मालामिति विग्रहे ।  


अर्थात् ऊर्यादि च्व्यन्त और डाजन्त की गति संज्ञा होती है क्रिया के योग में ।

( वा० ) ( १ ) प्रादि गत्याद्यर्थ में प्रथमान्त के साथ समस्त होते हैं ।

( वा० ) ( २ ) अत्यादि क्रान्ताद्यर्थ में द्वितीयान्त के साथ समस्त होते हैं ।


एकविभक्ति चापूर्वनिपाते  १ । २ । ४४ ॥


विग्रहे यन्नियतविभक्तिकं तद् उपसर्जनसंज्ञं स्याद् नतु  तस्य पूर्वनिपातः ।


अर्थात् विग्रह में जो नियतविभक्ति हो अर्थात् जिससे एक ही विभक्ति आती हो , उसकी उपसर्जन संज्ञा हो , परन्तु उसका पूर्व प्रयोग न हो ।


गो-स्त्रियोरूपसर्जनस्य  १ । २ । ४८ ॥


उपसर्जनं यो गोशब्दः , स्त्रीप्रत्ययान्तं च , तदन्तस्य प्रातिपदिकस्य ह्रस्वः स्यात् । अतिमालः । 

( वा ) अवाऽऽदयः क्रुष्टाऽऽद्यर्थे तृतीया । अवक्रुष्टः कोकिलया - अवकोकिलः ।

( वा ) पर्यादयो ग्लानाऽऽद्यर्थे चतुर्थ्या । परिग्लानोऽध्ययनाय - पर्यध्ययनः ।

( वा ) निरादयः क्रान्ताऽऽद्यर्थे पञ्चम्या । निष्क्रान्तः कौशाम्ब्या - निष्कौशाम्बिः ।


अर्थात् उपसर्जन जो गोशब्द और स्त्रीप्रत्ययान्त , तदन्तप्रातिपदिक को ह्रस्व होता है ।

( वा ) अव आदि का तृतीयान्त समर्थ सुबन्त के साथ क्रुष्ट आदि अर्थ में समास होता है ।

( वा ) परि आदि का चतुर्थ्यन्त समर्थ सुबन्त के साथ ग्लानि आदि अर्थ में समास होता है ।

( वा ) निर् आदि का पञ्चम्यन्त समर्थ सुबन्त के साथ निष्क्रान्त इत्यादि अर्थ में समास होता है ।




३  उपपद तत्पुरूष समास 


जिस तत्पुरूष समास का प्रथम पद उपपद तथा द्वितीय पद कृदन्त होता है , उसे ‘उपपद तत्पुरूष’ कहते हैं । 


सूत्र - तत्रोपपदं सप्तमी-स्थम्  ३ । १ । ९१ ॥


सप्तम्यन्ते पदे ‘कर्मणि’ इत्यादौ वाच्यत्वेन स्थितं यत् कुम्भाऽऽदि , तद्-वाचकं पदम् उपपदसंज्ञं स्यात् ।


अर्थात् सप्तम्यन्त पद ‘कर्मणि’ इत्यादि में वाच्यरूप से स्थित जो कुम्भ आदि उसके वाचक पद की उपपद संज्ञा होती है ।


उपपदम् अतिङ्  २ । २ । १९ ॥


उपपदं सुबन्तं समर्थेन नित्यं समस्यते , अ-तिङन्तश्चायं समासः । कुम्भं करोतीति-कुम्भ-कारः । अतिङ् किम्-मा भवान् भूत् , माङि लुङिति सप्तमीनिर्देशान्माङ्पपदम् । 

( वा ) गति-कारकोपपदानां कृद्भिः सह समास-वचनं प्राक् सुबुत्पत्तेः ।व्याघ्री , अश्व-क्रीती , कच्छ-पी-इत्यादि ।

अर्थात् उपपद सुबन्त का समर्थ के साथ नित्य समास होता है और यह समास अतिङन्त होता है अर्थात् तिङन्त के साथ नहीं होता ।

(वा) गति , कारक और उपपद का कृदन्त पदों के साथ समास सुप् आने के पूर्व हो ।


तत्पुरूषस्याङ्गुले संख्याव्ययादेः  ५ । ४ । ८६ ॥


संख्याव्ययादेरङ्गुल्यन्तस्य समासान्तोऽच् स्यात् । द्वे अङ्गुलीप्रमाणमस्य द्व्यङ्गुलम् । निर्गतङ्गुलिभ्यो - निरङ्गुलम् ।


अर्थात् संख्या और अव्यय हैं आदि में जिसके , ऐसे अंगुली-शब्दान्त तत्पुरूष से टच् प्रत्यय होता है ।


अहः-सर्वैकदेश-संख्यात्-पुण्याच्च रात्रेः  ५ । ४ । ८७ ॥


एभ्यो रात्रेरच् स्याच्चात् संख्याव्ययादेः अहर्ग्रहणं द्वन्द्वार्थम् ।


अर्थात् अहन् , सर्व , एकदेश , संख्या और पुण्य से परे रात्रि शब्द से अच् प्रत्यय होता है । चकार से संख्याऽव्ययादिपूर्वक रात्रि शब्द से भी ।


रात्राऽह्नाऽहाः पुंसि  २ । ४ । २९ ॥


एकदन्तौ द्वन्द्वतत्पुरूषौपुंस्येव । अहश्चरात्रिश्चाहोरात्रः । सर्वरात्रः । संख्यातरात्रः । 

( वा ) संख्यापूर्व रात्रं क्लीवम् । द्विरात्रम् । त्रिरात्रम् ।


अर्थात् रात्र , अह्न और अह ये हैं अन्त में जिस तत्पुरूष और द्वन्द्व के , वे पुर्ल्लिंग होते हैं ।

( वा ) संख्यापूर्वक रात्र शब्द नपुंसक लिंग होता है ।


राजाऽहः-सखिभ्यष्टम्  ५ । ४ । ९१ ॥


एकदन्तात् तत्पुरूषात् टच् स्यात् । परम-राजः


अर्थात् राजन् , अहन् और सखि शब्द जिसके अन्त में हैं , ऐसे तत्पुरूष से टच् प्रत्यय होता है ।



आत् ( न् ) महतः समानाऽधिकरण-जातीययोः  ६ । ३ । ४६ ॥


महत आकारोऽन्तादेशः स्यात् समानाऽधिकरणे उत्तरपदे जातीये च परे । महाराजः । प्रकारवचने जातीयर् । महाप्रकारो = नहाजातीयः ।


अर्थात् महत् शब्द को आकार अन्तादेश हो समानाधिकरण उत्तरपद और जातीय प्रत्यय परे रहते ।


द्व्यष्टन: संख्यायाम् अबहुव्रीहृाशीत्योः  ६ । ३ । ४७ ॥


आत् स्यात् । द्वौ च दश च द्वा-दश । अष्टा-विंशतिः ।


अर्थात् द्वि और अष्टन् शब्द को आकार अन्तादेश हो संख्या अर्थ में , परन्तु बहुव्रीहि समास में ‘अशीति’ शब्द परे रहते नहीं होता ।


पर्-वत् ( ल् ) लिङ्गं द्वन्द्व-तत्पुरूषयोः  २ । ४ । २६ ॥


एतयोः परपदस्येव लिङ्गं स्यात् । कुक्कुट-मयूर्याविमे । मयूरी-कुक्कुटाविमौ । अर्ध-पिप्पली ।

( वा ) द्विगु-प्राप्ताऽन्नाऽलंपूर्व-गतिसमासेषु प्रतिषेधो वाच्यः । पंचसु कपालेषु संस्कृतः पंचकपालः-पुरोडाशः ।


अर्थात् द्वन्द्व और तत्पुरूष में पर पद के समान लिंग होता है ।

( वा ) द्विगु , प्राप्त , आपन्न , अलंपूर्व और गति समास में पर पद के समान लिंग नहीं होता ।



प्राप्ताऽऽपन्ने च द्वितीयया  २ । २ । ४ ॥


समस्येते , अकारश्चानयोरन्तादेशः । प्राप्तो जीविकां प्राप्त-जीविकः । आपन्न-जीविकः । अलं कुमार्यै-अलं-कुमारिः , अत एव ज्ञापकात् समासः । निष्कौशाम्बिः ।


अर्थात् प्राप्त और आपन्न सुबन्तों का द्वितीयान्त समर्थ के साथ समास होता है । 



अर्धर्चाः पुंसि च  २ । ४ । ३१ ॥


अर्धर्चा ऽऽदयः शब्दाः पुंसि क्लीवे च स्युः । अर्धर्चः , अर्धर्चम् । एवं ध्वज- तीर्थ- शरीर-मण्डप-यूप देहाऽङ्कुश- पात्र - सूत्रादय: । सामानये नपुंसकम् -मृदु पचति , प्रातः कमनीयम् ।


अर्थात् अर्धर्चादिगपठित शब्द पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में होते हैं ।




॥ इति तत्पुरूषः ॥


हम आशा करते हैं , कि हमारे द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी आपके लिए सहायक होगी 


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